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मुद्रा के निर्माण की कहानी

अगर आप अपने बचपन के शारीरिक स्वरूप को याद करना चाहे तो बड़ी आसानी से याद कर सकते हैं लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि आपके गुल्लक में रखे सिक्कों का बचपन कैसा रहा होगा। सिक्कों या मुद्रा का प्रचलन कब, कैसे और क्यों हुआ?

इस प्रश्न के तह में जायेंगे तो हमें पता चलेगा कि पूर्व में हमारे देश में वस्तु विनिमय प्रणाली थी। परंतु इसमें काफी जटिलताएं थीं। जैसे वस्तु के योग्य मूल्य न मिलना, संचयन तथा अन्य राज्यों से व्यापार करने में कठिनाई इत्यादि। किन्तु इन कठिनाइयों को आसान करने के लिए अचानक मुद्राओं का निर्माण हो गया, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसका क्रमिक विकास हुआ।

प्रारंभ में छोटे राज्य थे जहां वस्तु विनिमय अर्थात एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु का आदान-प्रदान संभव था। परंतु कालांतर में जब बड़े-बड़े राज्यों का निर्माण हुआ तो यह प्रणाली समाप्त होती गई और इस कमी को पूरा करने के लिए मुद्रा को जन्म दिया गया।

यहां एक प्रश्न यह भी आता है कि प्रथम सिक्कों का निर्माण किसने करवाया अथवा सिक्कों के निर्माता कौन थे? इस संदर्भ में इतिहासकार के. वी. आर. आयंगर का मानना है कि प्राचीन भारत में मुद्राएं राजसत्ता के प्रतीक के रूप में ग्रहण की जाती थीं। परंतु प्रारंभ में किस व्यक्ति अथवा संस्था ने इन्हें जन्म दिया, यह ज्ञात नहीं है। अनुमान यह किया जाता है कि व्यापारी वर्ग ने आदान-प्रदान की सुविधा हेतु सर्वप्रथम सिक्के तैयार करवाए।

संभवत: प्रारंभ में राज्य इसके प्रति उदासीन थे। परंतु परवर्ती युगों में इस पर राज्य का पूर्ण नियंत्रण स्थापित हो गया था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि मुद्रा निर्माण पर पूर्णत: राज्य का अधिकार था।

इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि कुछ विद्वानों का मानना है कि भारत में मुद्राओं का प्रचलन विदेशी प्रभाव का परिणाम है। वहीं कुछ इसे इसी धरती की उपज मानते हैं। विल्सन और प्रिंसेप जैसे विद्वानों का मानना है कि भारत भूमि पर सिक्कों का आविर्भाव यूनानी आक्रमण के पश्चात हुआ। वहीं जान एलन उनकी इस अवधारणा को गलत बताते हुए कहते हैं कि ‘प्रारम्भिक भारतीय सिक्के जैसे ‘कार्षापण’ अथवा ‘आहत’ और यूनानी सिक्कों के मध्य कोई सम्पर्क नहीं था।

उत्पत्ति स्थान के अलावा मुद्रा के जन्म काल में भी विद्वानों में मतभेद हैं। ज्यादातर विद्वान मानते हैं कि भारत में सिक्के 800 ई. पू. प्रकाश में आये। वहीं डा. डी. आर. भण्डारकर तथा विटरनित्ज जैसे विद्वान भारत में सिक्कों की प्राचीनता 3000 ई. पू. के आस-पास बताते हैं।

जन्म स्थान और काल में बेशक विवाद हो लेकिन सिक्कों के निर्माण में इस्तेमाल की जाने वाली धातु के संबंध में कोई विवाद नहीं है। सिक्कों के निर्माण के लिए अनेक धातुएं प्रयोग में लाई जाती थीं। इनमें सोना, चांदी तथा तांबा प्रमुख धातुएं थीं। सोना तो भारत में विपुल मात्रा में था। तांबा भी अयस्क के रूप में प्राप्त होता था। परंतु चांदी बहुत कम मात्रा में उपलब्ध थी इसलिए इसका आयात किया जाता था।

सातवाहन वंश ने मुद्रा निर्माण में एक नया प्रयोग किया। उन्होंने मुद्रा निर्माण के लिए सीसे का प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया। विद्वान पेरीप्लस का विवरण है कि भारतीय लोग सीसे का बाहर से आयात करते थे। इतिहासकार प्लिनी ने इसका समर्थन करते हुए कहा है कि हिन्द यवन शासकों ने एक और धातु मुद्रा निर्माण हेतु प्रयुक्त किया जिसे निकिल के नाम से जाना जाता है।


कभी-कभी सिक्कों के निर्माण हेतु पोटीन, कांस्य तथा पीतल का भी प्रयोग किया जाता था। कई बार मुद्रा निर्माण में मिश्रित धातुओं का भी प्रयोग किया जाता था। धातुओं को कठोर बनाने में और गिरती हुई अर्थव्यवस्था के संदर्भ में इनका उपयोग सिक्कों में किया जाने लगा।

पोटीन कई धातुओं के मिश्रण से बनता था इसलिए इसे भ्रष्ट धातु कहा जाता था। कहीं-कहीं लोहे के सिक्के भी प्रचलन में थे। इसके अलावा मुद्रा के रूप में कौड़ियों का प्रचलन भी व्यापक क्षेत्र में था।

मुद्रा निर्माण विधि

प्राचीन भारत में तीन प्रकार से मुद्राओं का निर्माण किया जाता था:-

1. आहत अथवा छापा विधि - इस विधि से मुद्रा तैयार करने के लिए पहले विभिन्न प्रकार की धातुओं की पतली चादर तैयार की जाती थी। फिर उनके मानक तौल के अनुसार कई चौकोर टुकड़े किये जाते थे। उन टुकड़ो पर कुछ चिह्नों, नामों या शब्दों को अंकित किया जाता था। इसके लिए उन पर या तो आहत किया जाता था या फिर किसी मुहर से ठप्पा लगाया जाता था।

आहत मुद्राओं की सबसे बड़ी विशेषता थी कि ये विभिन्न आकार के मिलते थे। इनका कोई एक समरूप आकार नहीं था। इसका सबसे बड़ा कारण था भारानुसार इनकी कटाई-छंटाई। विभिन्न भारों के अनुसार इनका भारक भी भिन्न बन जाता था।

2. ढलाई विधि – यह दूसरी विधि ज्यादा परिष्कृत थी। इसमें एक बार में कई सिक्कों का निर्माण किया जाता था। जिससे समय व श्रम दोनों की ही बचत होती थी। रोहतक, तक्षशिला, मथुरा, सुनेत, अतंरजीखेड़ा, नालंदा इत्यादि स्थानों की खुदाई में मिले सिक्के इसकी प्रमाणिकता को सिद्ध करते हैं। ढलाई विधि में सिक्के सांचे की मदद से बनाये जाते थे।

सर्वप्रथम सांचे तैयार करके भट्ठी में रख दिए जाते थे। पकने के उपरान्त इनके मध्य छिद्र से धातु को ढाला जाता था। धातु नलिका से उचित स्थल पर पहुंचकर प्रस्तावित आकार में फैल जाती थी। भट्ठी के शीतल होने पर सांचे को विनष्ट कर दिया जाता था। उसी सांचे में चिह्न तथा लेख भी लिखे होते थे जो धातु पर अंकित हो जाते थे। यही पद्धति सिक्के के दोनों सतहों पर अंकन हेतु प्रयोग में लाई जाती थी।

3. ठप्पा-प्रहार-विधि- ईस्वी संवत् आते-आते मुद्रा निर्माण में ठप्पा प्रहार विधि काफी लोकप्रिय हो गई। इस विधि में गर्म धातु के टुकड़े पर ठप्पे के दबाव से लेख तथा प्रतीक चिह्न अंकित किए जाते थे। इस विधि के प्रमाण हमें केवल साहित्यिक संदर्भों में ही मिलते हैं। क्योंकि अभी तक एक भी डाई प्राप्त नहीं हुई है।

मुद्रा निर्माण केंद्र

प्राचीन भारत के राज्यों को जब मुद्रा का महत्व ज्ञात हुआ और विनिमय एवं व्यापार के लिए मुद्रा की आवश्यकता महसूस हुई तो उन्होंने व्यापक पैमाने पर मुद्रा निर्माण हेतु टकसाल का निर्माण करवाया। ये टकसाल अधिकतर राजधानी में होते थे। परन्तु कुछ राज्यों में इनका निर्माण प्रमुख व्यापारिक शहरों में भी होता था। यकीन के साथ तो नहीं लेकिन रोहतक, तक्षशिला, मथुरा, सांची, अतरंजीखेड़ा, काशी, सुनेत, नालंदा, कौशवी, कोण्डपुर, शिशुपालगढ़ इत्यादि जगहों पर टकसाल होने की संभावना व्यक्त की जाती है।

मुद्राओं पर अंकित लिपि

प्राचीन भारत के सिक्कों पर मुख्यतया ब्राह्मी, खरोष्ठी एवं ग्रीक लिपि का प्रयोग किया जाता था। वहीं भाषाओं में यूनानी, प्राकृत, संस्कृत, द्रविण भाषाओं का प्रयोग किया जाता था। सिक्कों पर इनके अलावा अनेक चिह्नों का भी प्रयोग किया जाता था जिससे इनके स्थान, समय और विशेषता का विभाजन किया जाता था। कई सिक्कों पर राजकीय चिह्न होते थे तो कुछ पर शासकाकृति का अंकन मिलता था। कुछ सिक्कों पर किसी विशिष्ट देवता या पशु के चिह्न भी अंकित होते थे।

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1 comments:

Virendra Chattha said...

http://bharatkidharti.com/patanjali-ayurved-coronil-launhced/

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